अक्षिता (परिवर्तित नाम) दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ती हैंI
बचपन से ही सबने मुझे ये महसूस कराया कि मैं अलग थी। इस शब्द ने पूरे बचपन के में मेरा पीछा नहीं छोड़ा। मैंने अपने मुस्कुराते चचेरे-ममेरे भाई,बहनों , समझदार दिखने वाले अंकलों और तिरछी निगाहों वाली आँटियों से इस शब्द का अर्थ जानने की कोशिश भी की लेकिन हर बार मेरे सवाल को हंसी में टाल दिया जाता थाI मुझे लगता था कि ज़रूर कुछ ऐसा है जो बाकी सब को दिख रहा है, बस मुझे नज़र नहीं आ रहा हैI
पैंट पहनना, पेड़ पर चढ़ना
मेरे आसपास के लोगों के अनुसार लड़कियों को तैयार होने, गुड़ियों के साथ खेलने, घर को संवारने और शर्मीले रहने में मज़ा आना चाहिए थीI मुझे उनकी यह सोच परेशान करती थी क्यूंकि लड़की होने पर भी मुझे इन सब में से किसी का शौक़ नहीं थाI मुझे पैंट पहनना, खेलकूद करना और पेड़ पर चढ़ना अच्छा लगता था।
लेकिन तब मुझे या मेरे आसपास वालो को इस बात से कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता था, क्यूँकि मैं एक बच्ची थी। सबको लगता था कि जब मैं बड़ी होउंगी, तब तक सब 'नोर्मल' हो जाएगा। यहाँ तक कि मुझे भी लगने लगा था कि किशोर अवस्था आने तक मैं भी वैसे महसूस करने लगूँगी जैसा बाक़ी लड़कियाँ करती हैं। अब मैं अपनी किशोरावस्था का बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी, जैसे बाकी बच्चे ईद, दीवाली और क्रिसमस का करते हैंI
लेकिन जब वो पड़ाव आया तो सब के साथ मेरे लिए भी निराशाजनक था क्यूँकि ऐसा कुछ नहीं हुआ, जैसा कि सबने और खासकर मैंने सोचा था। बल्कि इसके विपरीत मेरा यौवन मेरे इस 'समझ ना आने वाले' रुझान को और मज़बूत कर गया।
लड़के मुझे चाहते थे और मैं लड़कियों को
मुझे मेरी उम्र के लड़कों के साथ गली में क्रिकेट खेलना अच्छा लगता था। लेकिन अचानक मेरे साथ खेलने वाले लड़के अब मेरा मज़ाक़ उड़ाने लगे। वो मुझे अपने साथ खिलाना ही नहीं चाहते थे। बल्कि वो ये चाहते थे कि मैं बाहर रहकर उनका मैच देखूँ और तालियाँ बजाऊँ। वो मेरे साथ अलग तरीके के 'खेल' खेलना चाहते थेI वो खेल जिनमे मेरी कोई रूचि नहीं थीI अब अचानक वो मेरे साथ 'दोस्त से कुछ और ज़्यादा' बनना चाहते थे।
उम्र के इस नए पड़ाव ने मेरी उलझनें और बढ़ा दी थीI जब लोग पहली 'डेट' पर जाने लगे, और मुझे डेट के लिए पूछने लगे। मैं भी ये करना चाहती थी लेकिन लड़कियों के साथ। क्या ये ग़लत था?
ये दौर बहुत अजीब था क्यूँकि मेर मन में सवाल थे जिनका जवाब मैं किसी से पूछ नहीं पा रही थी। जब मुझे इंटरनेट मिला तब मुझे इन सवालों का जवाब कुछ कुछ समझ आने लगा। मेरे बचपन से अब तक की भावनाओं को शब्द मिलने लगे जिनसे मैं अब तक अनजान थी। मैं अपने आप के साथ सहज होने लगी।
मैंने अपने माता पिता को बता दिया
आख़िरकार 18 साल की उम्र में कॉलेज के लिए दिल्ली जाने से पहले, मैंने ये सच अपने परिवार के सामने रखने का फ़ैसला किया। मुझे लगा शायद मैं अब आज़ाद महसूस कर सकूँगी।
लगभग इसी समय सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को ग़ैरक़ानूनी घोषित करने का फ़ैसला सुना दिया। ये एक बहुत बड़ा झटका था। जैसे ही मैंने दुनिया को अपना सच बताने का मन बनाया, दुनिया ने मेरे लिए दरवाज़े बंद कर दिए!
लेकिन फिर भी मैंने अपने माता पिता को बता दिया। मेरे लिए ये ज़रूरी था। लेकिन इस सच ने मेरे माता पिता को भयभीत कर दिया- समाज और परिवार के तानों के बारे में सोच कर और ये सोच कर कि अब मैं समाज में कैसे रह सकूँगी।
उज्जवल भविष्य की उमीद
डर के इस माहौल में मैं दिल्ली आ गयी जहाँ कम से कम मेरे अपने मन में उलझन कम होने लगीं। मुझे मेरे जैसे अनुभव वाले और लोगों से मिलने का मौक़ा मिला जो अब अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे। इससे मुझे बेहतर भविष्य की अपेक्षा होने लगी थी।
जब मैं छोटी थी तो मुझे दूसरी लड़कियों की तरह ना होने के कारण लाचारी महसूस होती थी। मैं अपने आप को एक ऐसी लड़की बनाना चाहती थी जिसके लिए समाज में जगह हो। लेकिन अब मैं ऐसा नहीं सोचती। मुझे लगता है बदलने की ज़रूरत मुझे नहीं बल्कि समाज को है और बदलाव जागरूकता से आ सकता है। जानकारी से अनजाने डर का समाधान होता है।
मुझे विश्वास है कि बदलाव ज़रूर आएगाI
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