Mind Mera Mind
Mind Mera Mind film

'मन मेरा मन'-फिल्म समीक्षा

कोविड 19 महामारी ने हमें यह एहसास दिलाया है कि सेहत कितनी ज़रूरी है, खासतौर से मानसिक सेहत। 'मन मेरा मन' ऐसी ही एक फिल्म है जो प्रतीक - फिल्म के मुख्य समलैंगिक किरदार - की कहानी को खूबसूरती से प्रस्तुत करते हुए, मानसिक सेहत के मुद्दे पर रोशनी डालती है कि कैसे वह अपने मानसिक सेहत की परेशानियों से पीड़ित होता है और उनसे जूझता है। अन्वेष ने हमारे लिए इस फिल्म की समीक्षा की है।

प्यारी अनिद्रा 

एक बहुत ही दिलचस्प और मन में छाप छोड़ने वाला 'मन मेरा मन' का सीन फिल्म का पहला सीन है जिसमे एक प्रेमी की बिस्तर पर नींद ना आने की बेचैनी देख रही है। हम फिल्म के मुख्य किरदार, प्रतीक को बेड पर थोड़े से ही कपड़े पहने हुए एक व्यक्ति के साथ बातें करते हुए दिखाया गया है - हमें लगता है कि वह उसका प्रेमी है। पर जैसे ही हम यह सुनते हैं कि प्रतीक ने कैसे वह रात अपने लवर/प्रेमी के साथ बातें करते हुए काटी, हम समझ जाते हैं कि वह रिझाने वाली ताकत और कुछ नहीं बल्कि प्रतीक की नींद ना आने की परेशानी है।

इतनी उत्सुकता भरी सोच में इस बीमारी की वजह से देखने वाले के सामने, सोचने के लिए कई मनोरंजक पहलू खुलते हैं। कैसे हम एक समाज की तरह नींद ना आने की बीमारी और बाकी मानसिक बीमारियों के बारे में सोचते हैं, खासतौर से इस सोशल मीडिया के समय में जहाँ पर दर्द का बढ़ा चढ़ा ब्यौरा उसके असल रूप से भी ज़्यादा खतरनाक होता है? 'मन मेरा मन ' एक ताकतवर नाम के साथ ना सिर्फ उस विषय के बारे में दावा करता है बल्कि मदद के लिए एक छुपी हुई पुकार भी लगाता है, जो इसको कतरा, कतरा खोलता है।

स्टैंड-अप कॉमेडी AIB और पिक्सर क्लासिक की इनसाइड आउट से प्रेरणा लेते हुए, डायरेक्टर और लेखक हर्ष अग्रवाल उस युवा, शहरी गे व्यक्ति के मन की गहराई में उतर जाते हैं जो डिप्रेशन, एंग्जायटी से जूझ रहा है और उसे खुद पर विश्वास नहीं है। इस फिल्म को मनभावन रंगों में और हिलोरें लेते हुए नाटक की तरह शूट किया गया है, जो कभी दर्द भरे और कभी हल्के फुल्के पलों में प्रतीक के मन की असुरक्षाओं को खोलता है।   

एंग्जायटी से बातचीत 

इस कॉमेडी के इतने अहम लहज़े के बावजूद जो मनोरंजन और आलोचना का दोहरा मतलब हल करती है, वो छोटे छोटे पल हैं जो सबसे ज़्यादा ध्यान खींचते हैं। उस सीन को देखिये जब, डिनर के मेज पर एंग्जायटी और खुद के अविश्वास से प्रतीक बातचीत करता है, तब वह एक ऐसी लवर-सिचुएशन (अपने लवर के साथ) के बारे में सोचता है जो कि एकतरफा है। उसके चेहरे पर हल्का सा अविश्वास, दर्द की लकीरें, और दुःख का आता जाता रंग है। यही वह पल है जो इस सदी की समलैंगिक युवा पीढ़ी की गूँज को आवाज़ देता है।

मगर अग्रवाल चतुराई से इस सीन के दर्द को संतुलित कर देते हैं, फिल्म के एक बहुत तूफानी सीक्वेंस के साथ, जिसमें एक प्रोपेगेंडा रैली के राजनेता के रूप में डिप्रेशन सीन में आता है। यह परेशानी, लोकप्रिय सोशल मीडिया की चर्चा की रोशनी में जो क्लीनिकल डिप्रेशन के इर्द गिर्द घूमती है, किसी को भी सोचने पर मजबूर कर देती है कि किस तरह मानसिक स्वास्थ्य के बारे में गलत जानकारी फैली हुए है और कैसे इससे हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर असर पड़ रहा है। 

क्या चुप्पी बेहतर है?

इस कहानी में ध्यान भटकाने वाला तत्व है बैकग्राउंड म्यूज़िक। बैकग्राउंड की अक्सर कॉमेडीज़ या व्यंग्य कहानियों में बहुत खास भूमिका होती है- बहुत सी जगहों पर पंचलाइन को प्रत्यक्ष मज़ाक में बदलने में प्रभावी होती है। पर 'मन मेरा मन' के साथ मुश्किल यह है कि म्यूज़िक इतना ज़्यादा चला दिया जाता है- हर एक बदलते क्रम पर ज़ोर देने के लिए, कि एक समय के बाद वह कानों को चुभने लगता है और ध्यान भटका देता है।

दोबारा गौर करने पर लगता है कि खींची गयी चुप्पी ज़्यादा अच्छा काम करती है जैसे जैसे कैमरा ध्यान से मुख्य एक्टर को देखता है और उसकी सोच को आराम से बहने देता है। विजय का एक कुलीग की तरह किरदार जो हम तक पहुँचता है पर ज़्यादा बढ़ नहीं पाता है। हमें कहानी में उसकी जगह समझ में आती है परन्तु एक कहानी में यह एक व्यक्ति के आने के लिए, ख़ासकर सिर्फ एक ही बात को साबित करने के लिए, ट्रैक से बिलकुल हटा हुआ दिखता है।

क्या यह आपकी कहानी है?

यह फिल्म एक दावे के साथ शुरू होती है, मानसिक स्वाथ्य और उसके साथ जूझने के बारे में। जबकि यह दावा बहुत से दर्शकों को नापसंद हो सकता है, कुछ लोग बहस भी कर सकते हैं कि इस बीमारी का चिकित्सकीय तरीके से इलाज कराना चाहिए और इसको बढ़ने नहीं देना चाहिए। 'मन मेरा मन' असल में अंदर से एक संवेदनात्मक कहानी है जो एक शहरी समलैंगिक व्यक्ति के बारे में है जो अपने वज़ूद को सामान्य बनाने के लिए जूझ रहा है।

यह एक परफेक्ट फिल्म नहीं है और खामियों के बावज़ूद, अग्रवाल अपने लीड राघव शर्मा के साथ (जिनके चेहरे पर उम्र की समझदारी की झलक है) एक ऐसी कहानी बनाते हैं जो आपको हंसाती तो है पर साथ ही साथ आपको झटका देते हुए सोचने पर मजबूर कर देती है। यह वह कहानी है जिसे आप जानते हैं। शायद, यह आपकी ही कहानी है।

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