22 साल का पार्थ इंजीनियरिंग का छात्र है।
हमारे अपने व्यक्तित्व का प्रतिबिंब
हम परिवार नहीं चुन सकते, पर एक रिश्ता है, जो हम खुद चुनते हैं- दोस्ती का।
दोस्ती हमारी संगति बनती है और संगति हमारा व्यक्तित्व तय करती है, इसलिए इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी अगर यह कहा जाए कि दोस्त हमारे ही व्यक्तित्व का प्रतिबिंब होते हैं इसलिए वो आसानी से बन भी जाते हैं। पर दोस्ती निभाना शायद ही आसान हो और दोस्ती करने और निभाने का सफ़र मैंने कभी तय नहीं किया था, अब तक तो नहीं।
“पार्थ बेटा, अब भी सोच लो अगर मन नहीं मान रहा तो घर चलो, वहीं किसी यूनिवर्सिटी में दाख़िला ले लेना… टॉप किया है तुमने, हर कोई ले लेगा तुम्हें! यहाँ पता नहीं तुम्हारा रूममेट कैसा होगा, किस धर्म का, किस जाति का, नहाता होगा या नहीं, फूँकता तो नहीं होगा, पूजता होगा कि नही, अय्याश तो नही होगा, हमारे भोले-भाले बेटे को बिगाड़ तो नही देगा, कहीं…”
“अरे बस करो चिन्तनमुखी, तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे हमारा बेटा बड़ा आलोकनाथ है! जाओ गाड़ी में बैठो, बाप-बेटे थोड़ा बात करेंगे मर्दों वाली।”
“हाँ जा रही हूँ, ख्याल रखना पार्थ। चलो अब बाप भी कुछ सलाह देदे अपने बेटे को।"
रूममेट कपल हैं?
“बेटा, यह जो रूममेट होते हैं, यह एक कपल है। एक अरेंज्ड मैरिज वाला जोड़ा जिसकी अभी-अभी शादी हुई है पर एक दूसरे के नाम के अलावा कुछ नही पता। दोनों का स्वभाव अभी घूंघट और सेहरे से ढका है, जब यह हटेगा तब या तो तुम्हारा नया दोस्त बनेगा या सिर्फ़ एक रूममेट। पर कुछ भी हो, रहना दोनों हालात में है। भिन्नता में भी समानता ढूँढ़ना और एक दूसरे के लिए ढलना इस सफ़र को आसान बना देगा पर एक दूसरे के अनुसार नहीं ढलना, वरना हमारा पार्थ कहीं खो जायेगा। चलो मैं निकलता हूँ, इससे पहले हमारी चिन्तनमुखी फिर फड़फड़ाती यहाँ आ जाये।”
पिताजी तो चले गए, पर इतनी गहरी बातें कर गए। जैसे शशि थरूर की अंग्रेजी हो, शब्दकोष चाहिए समझने के लिए और मुझे एक रूममेट।
अर्जुन नाम था उसका, कद काठी मेरी तरह, सांवला रंग और मेरी आँखे उसे देखती ही रह गयी। ऐसा नहीं था कि वो सुन्दर था पर वो ‘वोह’ था!
दुश्मन भी नहीं हो सकते
“हाय, अर्जुन! उसने हाथ आगे बढ़ाया और मैंने पैर पीछे, जानबूझ के नही किये कसम से पर हिम्मत नहीं थी कि किसी ‘वैसे’ से हाथ भी मिलाये। हे गंगा मैया, कहाँ फँसा दिया? कौनसा पाप किये थे? लगता है पिताजी की जीभ पर सरस्वती विराजमान थी। हमें सच में कपल वाली फीलिंग आ रही थी और बात को फैलते देर भी नहीं लगी। सबने बातें भी बनानी शुरू कर दी। इधर अर्जी भी खारिज हो गयी, वजह दी गयी ‘आप एक असाम्प्रदायिक देश के युवा है, यह कारण आपसे अपेक्षित नहीं था।’
और मुझे इस यूनिवर्सिटी से यह अपेक्षित नही था! चार साल एक तरफ़ इंजीनियरिंग दिमाग खायेगी और दूसरी तरफ़ उसका डर।
दोस्ती तो छोड़ो, मैं दुश्मनी भी नहीं कर सकता ‘इसके’ जैसे से। ज़िन्दगी क्या इससे बुरी हो सकती थी? अर्जुन-पार्थ एक ही इंसान के नाम थे पर यहाँ तो लिंग भी भिन्न है। अब कौन सी समानता ढूँढू मैं!
हम परिवार नहीं चुन सकते, पर एक रिश्ता है, जो हम खुद चुनते हैं- दोस्ती का।
दोस्ती हमारी संगति बनती है और संगति हमारा व्यक्तित्व तय करती है, इसलिए इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी अगर यह कहा जाए कि दोस्त हमारे ही व्यक्तित्व का प्रतिबिंब होते हैं इसलिए वो आसानी से बन भी जाते हैं। पर दोस्ती निभाना शायद ही आसान हो और दोस्ती करने और निभाने का सफ़र मैंने कभी तय नहीं किया था, अब तक तो नहीं।
“पार्थ बेटा, अब भी सोच लो अगर मन नहीं मान रहा तो घर चलो, वहीं किसी यूनिवर्सिटी में दाख़िला ले लेना… टॉप किया है तुमने, हर कोई ले लेगा तुम्हें! यहाँ पता नहीं तुम्हारा रूममेट कैसा होगा, किस धर्म का, किस जाति का, नहाता होगा या नहीं, फूँकता तो नहीं होगा, पूजता होगा कि नही, अय्याश तो नही होगा, हमारे भोले-भाले बेटे को बिगाड़ तो नही देगा, कहीं…”
“अरे बस करो चिन्तनमुखी, तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे हमारा बेटा बड़ा आलोकनाथ है! जाओ गाड़ी में बैठो, बाप-बेटे थोड़ा बात करेंगे मर्दों वाली।”
“हाँ जा रही हूँ, ख्याल रखना पार्थ। चलो अब बाप भी कुछ सलाह देदे अपने बेटे को।”
“बेटा, यह जो रूममेट होते हैं, यह एक कपल है। एक अरेंज्ड मैरिज वाला जोड़ा जिसकी अभी-अभी शादी हुई है पर एक दूसरे के नाम के अलावा कुछ नही पता। दोनों का स्वभाव अभी घूंघट और सेहरे से ढका है, जब यह हटेगा तब या तो तुम्हारा नया दोस्त बनेगा या सिर्फ़ एक रूममेट। पर कुछ भी हो, रहना दोनों हालात में है। भिन्नता में भी समानता ढूँढ़ना और एक दूसरे के लिए ढलना इस सफ़र को आसान बना देगा पर एक दूसरे के अनुसार नहीं ढलना, वरना हमारा पार्थ कहीं खो जायेगा। चलो मैं निकलता हूँ, इससे पहले हमारी चिन्तनमुखी फिर फड़फड़ाती यहाँ आ जाये।”
पिताजी तो चले गए, पर इतनी गहरी बातें कर गए। जैसे शशि थरूर की अंग्रेजी हो, शब्दकोष चाहिए समझने के लिए और मुझे एक रूममेट।
अर्जुन नाम था उसका, कद काठी मेरी तरह, सांवला रंग और मेरी आँखे उसे देखती ही रह गयी। ऐसा नहीं था कि वो सुन्दर था पर वो ‘वोह’ था!
हाय राम!! यह क्या हो गया, मेरे रूम में मेरा पार्टनर ‘वोह’ निकला! अगर घर में पता चला तो बुला लेंगे। वापस रूम चेंज की अर्जी डालनी पड़ेगी जल्दी, अभी इसी वक़्त!
हद हो गयी, मतलब अब ऐसे लोगों के लिए अलग हॉस्टल क्यों नहीं बनवाते, ठीक है कानून ने मान्यता दे दी है। मैं भी कोई नफ़रत नहीं करता पर चार साल तक ऐसे इंसान के साथ कैसे? भय की एक लहर अंदर बह रही थी और कंपन से मेरी साँसे गहरी हो रही थी।
“हाय, अर्जुन! उसने हाथ आगे बढ़ाया और मैंने पैर पीछे, जानबूझ के नही किये कसम से पर हिम्मत नहीं थी कि किसी ‘वैसे’ से हाथ भी मिलाये। हे गंगा मैया, कहाँ फँसा दिया? कौनसा पाप किये थे? लगता है पिताजी की जीभ पर सरस्वती विराजमान थी। हमें सच में कपल वाली फीलिंग आ रही थी और बात को फैलते देर भी नहीं लगी। सबने बातें भी बनानी शुरू कर दी। इधर अर्जी भी खारिज हो गयी, वजह दी गयी ‘आप एक असाम्प्रदायिक देश के युवा है, यह कारण आपसे अपेक्षित नहीं था।’
और मुझे इस यूनिवर्सिटी से यह अपेक्षित नही था! चार साल एक तरफ़ इंजीनियरिंग दिमाग खायेगी और दूसरी तरफ़ उसका डर।
दोस्ती तो छोड़ो, मैं दुश्मनी भी नहीं कर सकता ‘इसके’ जैसे से। ज़िन्दगी क्या इससे बुरी हो सकती थी? अर्जुन-पार्थ एक ही इंसान के नाम थे पर यहाँ तो लिंग भी भिन्न है। अब कौन सी समानता ढूँढू मैं!
शुक्र है, हमारे डिपार्टमेंट अलग थे वरना नर्क बन जाती ज़िन्दगी। खैर, दिन बीतते गये, बातें सिर्फ उतनी होती थी जितनी काम की हो वरना बाकी दिन पुस्तकालय या दूसरे दोस्तों के रूम में जहाँ वो गंदे और बेहूदा सवाल पूछते और अर्जुन का मज़ाक उड़ाते। अपनी किस्मत का गुस्सा निकालने के लिए मैं भी थोड़ा बहुत शामिल हो जाता और दो महीने यही करते-करते कैसे कट गए पता नहीं चला, शायद कभी चलता भी नहीं अगर वो रात न आयी होती। वो भिन्नता में समानता नहीं दिखी होती तो अर्जुन-पार्थ की कहानी न लिखी होती।
अर्जुन-पार्थ की कहानी
मैं और वो अपने अपने बिस्तर पर रोज़ की तरह लेटे हुए थे। मैं रोज़ की तरह चादर ओढ़ के लेटा हुआ था तभी पेट में दर्द उठा, कुछ देर तो मैं पेट पकड़ के लेटा रहा फिर अचानक हलकी सी चीख निकली और अगले ही पल, मैं अस्तपाल में था। बीच में क्या हुआ कुछ याद नहीं, कुछ भी नहीं!
पर कुछ ऐसा देखा जिसे देख बातें अपने आप साफ़ हो गयी। मेरे हॉस्टल के दो-तीन दोस्त थे पर ‘वो’ नहीं था, अर्जुन नहीं था पर कुछ तो अजीब था। कुछ खटक रहा था तब दोस्तों ने बताया कि अर्जुन ने एम्बुलेंस बुलाई। मेरे घर वालों को खबर की और मुझे मेरे दोस्तों के साथ लेकर यहाँ आया।
खैर, इतना तो हर कोई करता है, मतलब कोई भी करता, मैं भी।
फिर कुछ ऐसा पता चला जिससे यह समझ आया कि हर कोई सब कुछ नहीं करता, कुछ-कुछ ही करता है। डॉक्टर से पता चला कि मेरे इलाज से पहले जो एडवांस गये थे वो अर्जुन ने दिए। मुझे बदहज़मी हुई थी और फर्स्ट एड भी अर्जुन ने ही दी थी। जो फॉर्म उसने भरा था, उसमें मेरे से रिश्ता लिखा था पर वो रिश्ता जो उसने तो पहले दिन से माना और आज निभाया और मैंने तो कभी सोचा भी नहीं, इंसानियत का!
उसने मुझे अपना भाई माना और मैंने उसे दुश्मनी लायक भी नहीं समझा, वो मुझे मेरी असुविधा से बचाने के लिए अस्पताल से चला गया और मैं हर रोज़ कमरे से बाहर निकल जाता, उसे इस असुविधा का एहसास दिला के।
अर्जुन ‘वोह’ है, इस बात का एहसास उसे मैंने हर रोज़ दिलाया पर उसने इस भिन्नता में भी समानता ढूँढ़ ली। मैंने नहीं, उसने हालातों में जीना सीख लिया। मुझे नहीं पता कि उसकी यह भिन्नता बीमारी है या सिर्फ सोच; पर यह दोस्ती की एक बंदिश कभी नहीं बन सकती और मेरा रूममेट सच में मेरी खुशी के लिए ढल गया, वैसे ही जैसे दोस्त ढलते हैं, वो मेरा प्रतिबिंब तो नहीं पर हाँ, मेरा दोस्त मेरी प्रेरणा बन गया।
यह कहानी को पहली बार 14 मई, 2020 को गेलेक्सी वेबसाइट पर प्रकाशित किया गया था। गेलेक्सी भारत की प्रमुख LGBTQ ई-पत्रिका है जो अंग्रेजी और हिंदी में उपलब्ध है.