Chaman bahar netflix
© Love Matters/Netflix

चमन बहार और ‘माल’ पुकारे जाने की वो यादें

नेटफ्लिक्स पर आयी एक नयी फिल्म - चमन बहार - देखते हुए ना जाने कितनी चीज़ें याद आ गयीं, कितने डर ज़िंदा हो गये। नुक्कड़, कॉलेज और चाय की टपरियों पर इकट्ठा लड़कों का हुजूम याद आ गया, जो सिर्फ़ टाइम पास के लिए लड़कियां छेड़ते थे। अणुशक्ति सिंह ने लव मैटर्स के साथ अपने यादें सांझा की।

देख ली गयी चमन बहार... कितनी ही स्मृतियाँ ताज़ा हो गयीं। 

नुक्कड़ पर किराने की दुकान पर लगी भीड़। स्कूल से लौटते हुए कोल्डड्रिंक की दुकान पर लटके हुए शोहदे। 

दिल्ली में कॉलेज के गेट पर बाइक्स पर बैठे सीन्यर्ज़ जो यूँ घूरते कि लगता नज़र देह के आर-पार गुज़र गयी। 

कॉलेज हॉस्टल के आस-पास रहने वाले मकानों के लड़के खिड़की की चिक कभी भी उठाओ, बालकनी में ही नज़र आते। 

हॉस्टल से बाहर निकलकर भरत नगर में रहते हुए ऐसा लगने लगा था जैसे नाम बदल कर ‘माल’ हो गया हो। 

चिढ़ कर जगह बदली तो वहाँ नया नाम ‘मसक्कली’ का मिला था। 

फ़्लैट के बगल वाली दुकान पर निठल्ले जैसे दिन भर लड़कियों के लिए धूनी रमाया करते। बाहर निकलने के साथ ही उनका राग शुरू हो जाता। 

शायद लड़कों को लगता होगा, लड़कियों को यूँ पुकारा जाना अच्छा लगता है। नहीं, बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है यूँ छेड़ा जाना।

जब भी अंदाज़ा हुआ कि कोई पीछे आ रहा है, या फिर मुझे ही माल या मसक्कली कह रहा है, दिल ज़ोर ज़ोर धड़कने लगता। 

मैं डरने से अधिक जवाब देने में भरोसा रखती हूँ फिर भी ऐसे मौक़ों पर तेज़ चल कर निकल जाती। मुझे लगता है, अधिकांश लड़कियों की ज़ुबान यूँ ही चिपक जाती होगी इन मौक़ों पर।

यह डर केवल उतनी देर नहीं रहता। कभी-कभी ज़िंदगी भर साथ चलता है।  

जानते हैं, 2018 का एक डेटा कहता है कि तक़रीबन पचास प्रतिशत भारतीय लड़कियाँ ग्यारहवीं के बाद स्कूल छोड़ देती हैं। इसका बहुत बड़ा कारण यह पीछा करना/ छेड़छाड़ है। 

चमन बहार ईव टीज़िंग पर आँखें खोलती हुई फ़िल्म है। बहुत अच्छे से दर्शाती है कि किस तरह से एक कानूनी अपराध का सामान्यीकरण हो गया है। कैसे लड़की जीवित इंसान से अधिक हासिल की जाने वस्तु मात्र में बदल गयी है। कैसे योग्यता में लड़की के मुक़ाबले कहीं नहीं खड़ा हो पाने पाला पुरुष, केवल पुरुष होने के नाते उस लड़की पर अधिकार चाहता है। 

कैसे पुरुष अपनी ग़लतियों के सिले को किसी निर्दोष स्त्री के सर पर लादता है और उसे सज़ा देने की कोशिश करता है (पनवारी का रिंकू को बदनाम करना।)

हालाँकि फ़िल्म की स्क्रिप्ट थोड़ी और टाइट हो सकती थी, निर्देशन तनिक और बेहतर, पर अभिनय के लिहाज़ से काफ़ी अच्छी रही है। नायिका रिंकू का एक भी सँवाद नहीं है और यह इस फ़िल्म की ख़ूबसूरती है।

जब भाव संवाद करें तो किस तरह से बातें मुखर हो उठती हैं, वह रिंकू के एक्स्प्रेशन बख़ूबी कर रहे हैं। 

जितेंद्र कुमार हर बार कमाल करते हैं। पंचायत के बाद चमन बहार उनका लगातार दूसरा अच्छा काम है। 

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