वह रोज़ की तरह ऑफ़िस का एक व्यस्त सा दिन था -मीटिंग, डेडलाइंस और उन सबके बीच जल्दी से वाट्सएप् मैसेज चेक करने की मेरी आदत, खासकर वे मेसेज जिन्हें मेरे ऑफ़िस कलीग ने भेजा हो। सारी आपाधापी और व्यस्त दिनचर्या के बीच मेरी एक दोस्त का संदेश आता है , काजोल की नई शॉर्ट फ़िल्म देवी वायरल है आजकल, देखी है तुमने? मैं उसे देखकर दहल उठी।
मैंने यह फ़िल्म देखी नहीं थी लेकिन क्योंकि फ़ेसबुक से लेकर हर जगह लोग इसी फ़िल्म की बात कर रहे थे तो ,मुझे लगा लंच ब्रेक के दौरान ही इसे देख लेना चाहिए। मैंने अपनी सभी कलीग्स को जमा किया और यह फ़िल्म अपने लैपटॉप पर देखने की योजना बनाई। देखा जाए आखिर यह फ़िल्म है किस बारे में ! मैं काजोल को देखने के लिए भी उत्सुक थी। वैसे भी फ़िल्म 15 मिनट से भी कम समय की थी इसलिए हम इतना समय आराम से निकाल सकते थे।
मैं भी यह फ़िल्म देखना भी चाहती थी जिसमें काजोल के अलावा नेहा धूपिया और श्रुति हसन ने काम किया था। फ़िल्म एक बहुत ही भरे हुए कमरे के परिदृश्य में शुरू होती है, जहाँ अलग अलग उम्र और पृष्ठभूमि की औरतें एक साथ रह रहीं हैं। फ़िल्म के आरंभ में हर स्त्री अपना काम करती नज़र आ रही जब एक टीवी रिपोर्ट देखकर वे सब परेशान हो जातीं हैं और आपस में बहस करने हैं कि कितनी और औरतों को उन्हें यहाँ जगह देनी होगी।
यह देखकर मेरा पहला विचार था कि क्या ये सब किसी तरह के हॉस्टल में हैं या किसी अस्पताल के यूनिट में या उससे भी भयंकर -क्या ये सब कोरोना वायरस की वजह से यहाँ जमा कर दिए गए हैं (मुझ पर हँसिएगा मत, टाइम ही खराब चल रहा है, मैं अकेली नहीं हूँ जिसके दिमाग में 24x7 कोरोना वायरस ही चलता रहता है।)
खैर फ़िल्म में वे सारी औरतें बहस कर रहीं कि उन्हें उस कमरे में कितनी और औरतों को एडजस्ट करना होगा, कितनी और औरतों को वे अंदर आने दे सकतीं और वे कैसे रहेंगी कि तभी दरवाजे की घंटी बजती है। दरवाजे की घंटी एक ट्रिगर की तरह काम करती है। तनाव अपने चरम पर पहुँच जाता है, उनके बीच की बहस और तीव्र हो जाती है और तभी यह पता चलता है कि ये सभी औरतें बलात्कार पीड़िता हैं। वे बहुत सारी हैं -बुर्के में छिपी एक बुनकर (मुक्ता भारवे), जांघें दिखाने वाली मॉर्डन मेम साहेब (शॉर्ट स्कर्ट वाली श्रुति हसन), बोलने की दिक्कत वाली किशोरी (यशस्विनी दायमा) मेडिकल की छात्रा (शिवानी रघुवंशी) कॉर्पोरेट में काम करने वाली (नेहा धूपिया) मराठी गृहिणी (नीना कुलकर्णी, रमा जोशी) और पूजा पाठ करने वाली ज्योति (काजोल का चरित्र, एकमात्र पात्र जिसे नाम दिया गया है)।
अब मैं जान चुकी थी कि फ़िल्म का विषय बलात्कार है लेकिन मुझे यह जानने की उत्सुकता थी कि 15 मिनट की फ़िल्म में वे इस विषय को कैसे दिखाएंगे जो अन्य किसी और फ़िल्म में अब तक नहीं दिखाया गया है। कमरे में जमा औरतें बहस कर रहीं थीं कि घंटी बजा रही औरत को अंदर लिया जाए या नहीं। हर पात्र अपने साथ हुई क्रूरता को साझा कर रही है।
जिस दृश्य को देखकर मेरा दिल दहल गया वह यह था कि वह सब मृतक औरतें हैं। वे सभी स्वर्ग में जमा हैं।
चाकू से गोदी गई, पत्थरों से मारी गई, ज़िंदा जलायी गई, मानसिक रूप से बुरी तरह प्रताड़ित कर और कचड़े की तरह हाइवे पर फेंक दी गई, उन पर की गई क्रूरता हिला कर रख देने वाली थी। मेरी आँखें नम थीं और मैं उस फ़िल्म से बिल्कुल बंध सी गई थी।
जब ज्योति नए सदस्य के साथ कमरे में आई तो उसे देखकर मैं दुख और आश्चर्य में डूब गई। वह एक छोटी बच्ची थी। मैं अंदर से टूट सी गई और फ़िल्म के खत्म होने पर अपने आँसू नहीं रोक पाई -वह बच्ची मेरी बेटी की उम्र की थी। निर्भया, हैदराबाद के डॉक्टर का बलात्कार, छोटी बच्चियों से हुए बलात्कार की सारी सुर्खियां मेरे जेहन में ताज़ा हो गईं। निर्भया के बलात्कार वाले मामले के समय मैं दिल्ली आई थी और उसके पक्ष में हुए आंदोलन का हिस्सा थी, अभी भी उस मामले में न्याय नहीं हुआ है। हम सब कितने असहाय हैं। फ़िल्म हमारी उसी असहायता को बहुत ही प्रभावी तरीके से दिखाती है।
देवी देखकर आपका दिल टूट जाता है। यह आपको लाचार महसूस कराती है। बलात्कार गरीब औरतों के साथ होता है, उनके साथ होता है जो कम कपड़े पहनती हैं, जो अशिक्षित हैं, जो सेक्सुअली एक्टिव हैं, नहीं ! बलात्कार आपके और मेरे साथ होता है। उस देश में जहाँ देवियों की पूजा की जाती, हर दिन बलात्कार के 90 मामले दर्ज किए जाते। ज़ाहिर है इससे ज़्यादा होते होंगे जो दर्ज किए बिना रह आते। वह कमरा भरता ही जा है। यह सब कब रुकेगा। मैं सवालों और आंसुओं से भर उठी हूँ।
फ़िल्म में एक भी बलात्कार का दृश्य नहीं है। एक भी पुरुष यहाँ नहीं। फिर भी इसमें बलात्कार इतना जीवंत और असली है। मैं अब कांप रही हूँ। व्हाट्सएप पर एक और संदेश आता है। किसी और दोस्त ने लिंक साझा की है। मेरा दिल भारी हो उठा है। देवी के लिए भरे दिल से लव मैटर्स के चार दिल हैं।
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