निधि गोयल विकलांगता और जेंडर अधिकार एक्टिविस्ट है। वे राइजिंग फ्लेम संस्था, जो विकलांग युवाओं और महिलाओं के साथ काम करती है, की संस्थापक और एक्सिक्यूटिव डायरेक्टर हैं। वह भारत की पहली विकलांग महिला कॉमेडियन हैं।
शहर से दूर एक नई दिनचर्या
बरसात की एक रात थी और मै बस एक गरमा गरम कॉफी का कप लेकर अपने विचार कही लिखना चाहती थी । लेकिन उफ़! अमेज़ॉन से कॉफी पाउडर आने मे अभी छः दिन और लगने वाले थे। कोविड 19 के लॉकडाउन के दौरान पूरी दुनिया ऐसे ही जीवन जी रही थी।
लॉकडाउन के शुरू होने के पहले ही, जैसे देश मे खतरा बढ़ने लगा, मै – एक नेत्र बाधित महिला – और मेरे बूढ़े माता पिता, शहर से 120 किमी दूर एक सामुदायिक केन्द्र मे जा कर रहने लगे, क्योंकि कोविड 19 से सभी को खतरा था, लेकिन उन्हें और भी स्वास्थ समस्याएँ इत्यादी थी, जिससे उनके लिये ये समय और भी कठिन हो गया था।
अब हम शहर से दूर खतरे से तो सुरक्षित थे, लेकिन शहर के लोगों के लिए जो सुविधाएं फिर से शुरु हो गयी थी, वो हमें नहीं मिल पा रही थी। पर खैर, इन सब बातों से ध्यान हटा कर मैंने सोचा कि मेरे पास और क्या ऑप्शन है? चाय, जूस…आइसक्रीम? किचन मे कुछ डिब्बों पर हाथ फेरने के बाद मैंने आखिरकार केतली उठाई और सिर्फ पानी गर्म कर लिया। अकेले ही बैठ कर मै सोचने लगी के आज मेरे अकेलेपन का इलज़ाम मैं किस पर लगाऊँ – कोविड 19 पर, या अपने बॉयफ्रेंड पर, जिसे रोज़ जल्दी सो जाने की आदत है।
वादे और अनिश्चितता
आठ साल कि दोस्ती, थोड़ी हिचकिचाहट, और बहुत बात चीत के बाद, हमने 2020 में आखिरकार एक दूसरे की ओर हमारी भावनाओं को स्वीकार किया। लेकिन हमारे मन में झिझक इस वजह से थी कि हमारे विचार, धारणाएं और काम करने के तरीके काफी अलग थे। कोई भी संकोच की वजह हमारी विकलांगता नहीं थी ।
हमने ठान लिया था के 2020 का यह साल हमारे जीवन का सबसे अनोखा समय होने वाला था। जैसे ही मै अपने बॉयफ्रेंड के शहर से फ्लाइट मे निकलकर अपने शहर पहुंची, उसने मुझे फोन करके अपने प्यार का इज़हार किया – सोचिये, ऐसी बात फोन पर! मै यह उसे कभी भूलने नहीं दूँगी। उसने अपनी बात को बहुत प्यार और बहुत निवेदन से सामने रखा और इससे भी अधिक अनुनय-विनय के साथ उसने मुझे अपने साथ आकर रहने के लिए कहा।
साल के शुरुआत में, हम गुड़गांव के एक जाने माने रेस्टोरेंट में अक्सर मिल कर, एक दूसरे के साथ हमेशा रहने के कई वादे किया करते थे। हमें क्या पता था कि आने वाले महीनों में उन वादों को निभाने के लिये हमें कई परेशानियों का सामना करना पड़ेगा।
यह साल सभी के लिये कठिन था, लेकिन हमारे लिये, एक दूसरे से जुदा रहना, और एक दूसरे का साथ देना और भी मुश्किल हो गया था। इसलिए, क्योंकि हम दोनो ही बहुत अनुसूचित तरह से रहते है। क्योंकि मुझे लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप बिल्कुल पसंद नहीं है और मेरे बॉयफ्रेंड को भी अकेले रहने की आदत नही थी – लेकिन कई सालो के बाद उसे फ्लैटमेट के बिना रहना पड़ रहा था। साथ ही, मुझे खाने पीने का बड़ा शौक़ था और यहाँ शहर से दूर मुझे अपना पसन्दीदा खाना नही मिल पा रहा था। और हाँ, शायद इसलिए भी क्योंकि हम दोनो ही नेत्र बाधित है।
जब लॉकडाउन के एक महीने बाद तक भी उसने मुझसे विडियो कॉल पर बात करने के लिए नहीं पूछा, तो मैं काफी नाराज हो गयी थी। मुझे अपने बॉयफ्रेंड से अपनी प्रशंसा सुनने की, प्यार की बाते करने की आदत थी और मुझे इसकी कमी महसूस होने लगी थी। मेरे आत्मविश्वास पर थोड़ा फर्क पड़ने लगा था।
‘तुम्हारी मुस्कुराहट कितनी प्यारी है’
थोड़ा झिझक कर, मैने उसे आखिर पूछ लिया – "क्या तुम मुझे देखना नही चाहते हो?" लेकिन उसकी आवाज़ की मजबूरी ने मुझे तड़पा दिया। "बिल्कुल, मेरी प्रिय, मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ लेकिन मैं तुम्हें तकलीफ नही देना चाहता। तुम वैसे ही बहुत परेशान हो, मैं तुम्हे अच्छे सिग्नल वाली जगह ढूंढ कर, कैमरा व्यवस्थित करने की और तकलीफ नही देना चाहता ।
यह सुनकर मै बिल्कुल हैरान रह गयी। वो बस मेरा ख्याल रखने की कोशिश करने मे, मेरे बारे में सोचने मे लगा था। उसके वीडियो कॉल ना करने का कारण यह बिल्कुल नहीं था कि वो मुझे याद नही कर रहा था, या मै उसे पसंद नही थी। लॉकडाउन के शुरू होने के चालीस दिन बाद, हमने अपना पहला वीडियो कॉल किया, और उसकी आवाज सुनकर मुझे बहुत सुकून मिला ।
मै हमेशा से ही हर चीज को स्पर्श करके समझना पसन्द करती थी, और कोविड के दौरान यह मुमकिन नही था । माना की हम लॉकडाउन के पहले भी अलग शहरों में रहते थे, लेकिन मेरे काम के कारण, मेरा उसके शहर कम से कम महीने मे दो बार जाना तो हो ही जाता था, इसलिये लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप के बावजूद इतनी दूरी महसूस नहीं होती थी । लेकिन अब, हम एक दूसरे से केवल डिजिटल दुनिया के माध्यम से जुड़े रह सकते थे, और यह कड़ी नेटवर्क की समस्याओं के कारण अक्सर कमजोर हो जाया करती थी।
मैं ज्यादातर उसे सिर्फ एक पांच साल पुराने फ़ोन पर ही कॉल कर सकती थी और उस फोन की भी हालत काफी खराब थी – ना माइक ठीक से चल रहा था, ना ही उस फोन की बैटरी हमारे पास थी। हम दोनों के लिए यह डिजीटल दुनिया पूरी तरह खुली नहीं थी क्योंकि हम दोनों ही इस दुनिया में स्क्रीन रीडर और मैगनीफ़ाइर का इस्तेमाल करते हैं। एप्प्स्, वेबसाइटस् और डिजीटल विषय-वस्तु में भले ही सुगमता के विकल्प होते हैं पर वह अधिकतर काफ़ी सीमित होते थे। जिसका मतलब था कि हम यूंही अपनी कोई पसंदीदा फ़िल्म देखने के लिए नहीं चुन सकते, बल्कि हमें एक स्तर आगे आकर यह भी देखना होता था कि हमारी उस फ़िल्म का ऑडियो विवरण उपलब्ध है या नहीं। इसका मतलब था कि जब हम एक दूसरे को कुछ छोटी-मोटी चीज़ भेजना चाहते थे तो हम उन ई-कामर्स की साइट तक सीमित हो जाते थे जो हमारे लिए अनुकूल हैं । कहने को तो आज कल काफी वेबसाइट हैं जिन्होंने सुगमता बनाये रखने का प्रयास किया है, पर फिर भी, हमारे लिये बनाई गयी सुविधा गैर विकलांग लोगों के लिये उपलब्ध सुविधाओं से आज भी काफी कम है।
ज़िन्दगी बॉलीवुड नही!
हमारे बीच की ये कड़ी उस समय बहुत नाजुक थी। हमने अभी हाल ही में एक दूसरे के साथ रहने का तरीका ढूंढा ही था कि अचानक पूरी दुनिया ही बदल गयी! हमें अब यहीं नहीं पता था कि व्यक्तिगत रूप से हमारे लिए क्या काम करेगा, तो और किसी चीज की तो बात ही कैसे करे।
एक साथ समय बिताने जैसी मौलिक लेकिन महत्वपूर्ण चीज, डिजीटल दुनिया में हमारे लिये कैसा रूप लेने वाली थी? एक दूसरे के समय को लेकर हमारी क्या अपेक्षा थी, जब वह अपने घर में अकेला रह रहा था, और मै, अचानक से एक छोटे से समुदाय में रह रही थी, जहाँ मेरे पास अपना काम करने के लिए जगह कम थी और मेरे काम मुझे काफी व्यस्त रख रहा था।
हमारे मन में कई सवाल थे। क्या हम, दो महत्वाकांक्षी और प्रोफेशनल युवा, एक साथ मिल कर, इस समय के वजह से आये हुए तनाव और निराशाओं से लड़ पाएंगे? उसकी नौकरी चली जाए या वेतन में कमी हो जाए तो हम क्या रास्ता निकाल पायेंगे? और, अपनी संस्था की प्रमुख होने के कारण, मेरे मन में और भी सवाल उठ रहे थे - क्या मेरी टीम इस समय काम कर पाएगी? विकलांग लोगों को इस समय कौन सी तत्काल प्रतिक्रियाओं की ज़रूरत थी, जो हमें उन तक पहुचानी थी?
मै यथार्थवादी होने के बावजूद, कभी कभी सोचती हूँ कि काश असल जिंदगी में भी रिश्ते बॉलीवुड की तरह ही होते – जहा थोड़े से प्रयास का बड़ा फल मिलता हो, जहाँ सबका अन्त मे खुशी खुशी जिन्दगी भर साथ रहना पहले से तय हो, और जहाँ आप अपने साथी की एक एक सांस पहचानने लगें। लेकिन यह बॉलीवुड की दुनिया नहीं है। यहां रिश्तों को जोड़ कर रखने में बड़ी मेहनत लगती है।
डिजीटल माध्यम से घनिष्ठता बनाना
लेकिन जब आपके पास संबंधों में लगाने के लिए बहुत कम समय और शक्ति हो तो क्या होगा? क्या होगा जब बाहरी तत्व कोविड के दौरान विकलांग व्यक्ति के लिए प्यार करने को और मुश्किल बना देते हैं? क्या होगा जब स्वतंत्र होने का गर्व और जीवन में लम्बे संघर्ष के बाद अपनी एक जगह बनाने के बाद, संकट की इस स्थिति से उत्पन्न इस नए परिभाषित सामान्य जीवन के कारण, वह सब ग़ायब हो जाए?
मुझे अपने साथी की कमी बहुत खल रही थी - सिर्फ इसलिए नहीं क्यूंकि मैं उससे मिल नहीं पा रही थी। बल्कि इसलिए कि मेरे पास ऐसा कोई तरीक़ा नहीं था, जिससे मैं उसे देख सकूँ, जब वह अपनी बात मनवाने के लिए गु़स्से से अपने गाल फुलाता है। ऐसा कोई तरीक़ा नहीं था, जिससे मैं उसे देख सकूँ, जब वह कुछ योजना बनाते समय उत्साह से अपना सिर ऊपर-नीचे करता है। और ऐसा कोई भी तरीका नहीं था जो मुझे उसकी नज़र को महसूस कर के बता सके कि उसे मैं तब सैक्सी लग रही हूँ जबकि उसकी सांस और स्पर्श से मुझे तुरंत पता लग जाता था।
जब मेरे लिए यह सब बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया तो मैंने उसे सब कुछ बता दिया। तब से मैंने देखा के वह अब अपने हर काम और प्रतिक्रियाओं के बारे में मुझे विस्तारपूर्वक बताने लगा। ‘‘मैं तुमसे बात करने के साथ-साथ अपने कपड़े भी तह कर रहा हूँ,” और ‘‘यह वह क़मीज़/शर्ट है जो पिछली बार मैंने पहनी थी और तुम्हे बहुत पसंद आई थी”। मेरे बिना पूछे ही दिए जाने वाले यह विवरण हमारे बात चीत के बीच की खामोशियों को भरने लगे और हमको करीब लाने लगे।
लम्बी दूरी और भी दूर लगने लगी
सोचो, नए तरीक़े बनाओ, कोशिश करो, प्रक्रिया को दोहराओ, यही हमारा मंत्र बन गया। साथ में फ़िल्में देखना? यह तो मुमकिन नहीं था क्योंकि व्यूइंग पार्टी वाला बटन एप्प पर सुगम नहीं था। एक सुलभ गेमिंग वेबसाइट पर एक साथ गेम खेलना? लेकिन उसको तो पत्ते खेलने में कोई दिलचस्पी ही नहीं थी। साथ में कोई किताब पढ़ना? यह भी मुश्किल था क्योंकि मुझे उपन्यास और उसे गैर काल्पनिक किताबें पसंद थी।
कुछ भी हो हमने कभी साथ समय बिताने के नए तरीके खोजने बंद नहीं किये। सारी मुश्किलों के बाद भी हमने हर नयी चीज़ करने की कोशिश की, लेकिन हम हर बार कामयाब नहीं हो पाए। लेकिन एक बात तो थी - हम दोनों जानते थे के हम एक साथ रहने की लगातार कोशिश कर रहे थे।
कोविड के समय लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप, वह भी एक ऐसे साथी के साथ जिसे फ़ोन पर रोमांस बनाये रखने में काफी मुश्किल हो रही हो - कुछ ज़्यादा ही कठिन है!
और सबसे मुश्किल चीज़ थी वो डर जिसका मैं रोज़ सामना कर रही थी। वो अकेला है - सुरक्षित तो है? क्या वह तनाव को झेल पायेगा? और उसकी मानसिक स्थिति का क्या? साथ ही साथ, मैं उसके कभी कभी मेरी बाधाओं को न समझने की वजह से, या इस बात के न समझने की वजह से, के मेरे परिवार और समुदाय में रहने के कारण मेरी कुछ प्रतिबद्धताएं हैं, अपने चिढ़ और गुस्से को भी महसूस कर रही थी।
हम एक दूसरे को पूरी तरह से कैसे समझ सकते हैं जब हम खुद अपनी बदलती स्थितियों और जीवन जीने के तरीकों से समझौता करने में लगे हुए थे? शुरू के महीने काफी मुश्किल और संदेहयुक्त थे, और हमें बहुत कोशिश के बाद भी कई बार ऐसा लगता था के हम एक दूसरे को समझ नहीं पा रहे थे।
जब काम के दबाव बढ़ने लगे, हमने एक और तरीका आज़माया।हमने तय किया के ऑनलाइन ही एक वर्चुअल ऑफिस बनाया जाए। साथ बैठ कर काम करने से बेहतर और क्या हो सकता है? तो बस,अब हर सुबह सात बजे - वह अपने टेबल पर, और मैं पलंग पर एक फोल्डिंग टेबल के साथ - हम दोनों बैठ जाते थे।
और भी ख़ुशिया, तोहफ़े और डेट्स बाक़ी हैं
समय-समय पर सुनाई देने वाली तेज़ी से ली गई सांस, परेशान या गहरी सांस या ज़ोर से अंगड़ाई लेने की आवाज़, हमारे काम करने के घन्टों को मेरे लिए सजीव कर देती थी। मैं किसी और की मौजूदगी में काम कर रही हूँ जो मेरे कार्य करने की क्षमता को और बढ़ा रहा या निखार रहा है। उसके लिए हर दिन कुछ घन्टों के दौरान बीच-बीच में मेरी तरफ़ देख पाना, शायद हम दोनों के लिए ही बहुत अच्छा साबित हो रहा था। हम एक दूसरे के और करीब आने लगे, और एक दूसरे का साथ महसूस करने लगे। और यह नयी तरकीब निकालने पर, हम दोनों ही अपने आप को बड़ा ही चतुर समझने लगे, और अपने ही में खुश घूमने लगे।
कुछ दिन अच्छे, तो कुछ दिन बुरे होते थे। कभी तो हम दिन भर बातें किया करते थे, और फिर कभी कभी तो बिलकुल ही नहीं। लेकिन मुझे सचमुच लगता है के कोविड का समय एक ऐसी परीक्षा की घड़ी थी जो हमें पास ले आयी, और अब हम एक दूसरे की विभिन्नता और इच्छाओं के प्रति अधिक संवेदनशील हो गए हैं।
अब उस समय के बारे में सोच कर मैं मुस्कुरा सकती हूँ, हँस सकती हूँ, और एक तरह का आश्चर्य भी महसूस कर सकती हूँ। मेरे बॉयफ्रेंड ने लॉ डाउन के शुरुआत में मुझे सबसे पहला तोहफा एक रिचार्जेबल पंखा दिया था। उसे पता था कि गर्मी और बरसात के मौसम में बिजली का ठिकाना नहीं रहता, और वह चाहता था के मैं बिजली कटने पर भी पूरी रात चैन से सो पाऊं।
उसके मेरे प्रति इसी चिंता और ख़याल रखने की भावना को देख कर, मेरे दिल में उसके लिए और भी बड़ी जगह बन गयी।आगे जा कर उसने मुझे और कई तोहफे भेजे, लेकिन मेरे लिए सबसे ख़ास वह पंखा ही था। लोगों को हमेशा ही लगता है के मैं ज़्यादा रचनात्मक सोच वाली हूँ। लेकिन नए नए चीज़ों के बारे में सोचने में, वह मुझसे भी कहीं आगे है। शायद यह उसके आइवी लीग कॉलेज से पढ़ने का नतीजा है।
लॉकडाउन के दौरान उसके साथ मेरी पहली डेट के लिए उसने एक स्टैंडप कॉमेडी शो की टिकटें ली थी। यह शो ज़ूम पर हो रहा था, और हम दोनों अलग शहरों में बैठ कर इसे साथ देख रहे थे। मेरे एक कान में शो का ईयरफोन लगा था,और दूसरा, फ़ोन पर उसकी हँसी सुन रहा था। उस दिन, साथ हँसते हँसते, हमारे दिल को थोड़ी ठंडक मिली। हम एक दूसरे के और भी नज़दीक आने लगे, और हमारे मन में आने वाले समय के लिए एक उम्मीद सी जाग गयी!
लव मैटर्स के सहयोग से राइजिंग फ्लेम प्रेम, अंतरंगता, रिश्तों और अक्षमता पर निबंधों की एक श्रृंखला ला रहा है। ‘दिल-विल, प्यार-व्यार’ अक्षम महिलाओं की आवाज़ को आगे बढ़ाने का एक प्रयास है। कुछ ऐसे कहानियाँ जो शायद ही मुख्यधारा में प्यार पर होने वाली चर्चाओं में शामिल की जाती है। फरवरी में हम डिसेबल्ड महिलाओं द्वारा लिखित चार कहानियाँ प्रकाशित करेंगे, जिससे हमें उनके जीवन में झांककर उनके सपने और प्यार की संभावनाओं की उम्मीद देखने को मिलेगी।
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