Diwali story
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उस अज़नबी का शुक्रिया जिसने मेरी दिवाली ख़ास बना दी

द्वारा Roli Mahajan नवंबर 20, 08:07 पूर्वान्ह
क्या आप जल्द ही दिवाली पर घर जाने वाले हैं? अगर हां तो इस कहानी को पढ़िए। अगर आप नहीं भी जा रहे हैं तो दिवाली में घर आने की यात्रा की यह कहानी आपके अंदर एक नयी उमंग भर देगी।

27 वर्षीय साक्षी दिल्ली में मौसम विज्ञान विभाग में काम करती हैं।

कहना आसान है लेकिन करना मुश्किल

दिवाली पर घर गए मुझे दो साल हो गए थे। इसलिए इस साल के शुरुआत में ही मैंने सोच लिया था कि चाहे जो भी हो जाए, इस दिवाली मैं घर ज़रूर जाऊंगी। खैर, कहना आसान होता है लेकिन करना मुश्किल।

वैसे तो लखनऊ के लिए ट्रेन का टिकट हमेशा ही काफ़ी मुश्किल से मिलता है लेकिन होली और दिवाली पर ट्रेन का टिकट पाना किसी ओलंपिक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने से कम नहीं होता। जिस दिन बुकिंग खुली, मैं टिकट बुक कराने से चूक गयी। जब तक मैंने टिकट देखना शुरु किया तब तक सभी टिकट बुक हो चुके थे। फ्लाइट टिकट के दाम भी आसमान छू रहे थे।

दिवाली से ठीक तीन दिन पहले, मुझे आरएसी टिकट मिला, जिसका मतलब यह था कि मैं ट्रेन में यात्रा कर सकती हूं लेकिन मुझे अपनी सीट किसी के साथ साझा करनी होगी।

ट्रेन पकड़ने के लिए जब मैं स्टेशन पहुंची तो वहां इतनी भीड़ थी जैसे सभी लोग दिवाली में अपने घर जा रहे हों। खड़े होने की भी जगह नहीं थी। शुक्र है कि मेरे पास वातानुकूलित डिब्बे का टिकट था लेकिन मैं भूल ही गयी थी कि किसी के साथ मुझे सीट साझा करनी होगी।

जगह की कमी 

मेरा सीट पार्टनर पहले से ही बैठा था। वह इतना लंबा चौड़ा था कि पूरी सीट वैसी ही उसके लिए कम पड़ रही थीI उसकी बड़ी बड़ी दाढ़ी मूंछें थी और काफी गुस्सैल दिख रहा था। उसे देखकर मुझे तुरंत अजीब पुरुषों के साथ ट्रेनों में सीटें साझा करने की डरावनी कहानियां याद आने लगी!

जब मैंने अपना बैग सीट के नीचे रखने की कोशिश की तो उसका बैग थोड़ा आगे खिसक गयाI वह नाराज़ हो गया और बोला, मैडम, आप मेरे बैग को क्यों छू रही हैं, इसे खिसकाएं नहीं। मैं यहां पहले आया था और अगर आप मेरा सामान इधर-उधर नहीं करेंगी तो अच्छा होगा। '

सच कहूं तो वह काफी विनम्रता से बातें कर रहा था लेकिन मैं ही उत्तेजित हो गयी। हम सभी दीवाली के लिए घर जा रहे हैं और आपको थोड़ी जगह बनानी ही होगी ’। मैंने तुरंत उसे जवाब दिया।

इससे पहले कि हालात और बिगड़ जाते एक बुजुर्ग आंटी ने हस्तक्षेप करके मामले को शांत किया। ट्रेन चलने लगी और टीटी आ गया। मैंने उनसे पूछा कि क्या मुझे दूसरी सीट मिल सकती है लेकिन मेरी किस्मत ही खराब थीI

इतना बुरा भी नहीं था

ट्रेन में बहुत ज्यादा भीड़ थी। मैंने अपने आप को सीट पर जितना संभव हो फैलाने की कोशिश की। जिसकी वजह से वो लड़का पूरी तरह से अपनी सीट के किनारे पर था।

मेरी आँख लग गयी थी जब मेरे कानो में उसकी नम्रता से भरी आवाज़ आयीI "मेरा बैग खाने पीने की चीजों से भरा था इसलिए मैंने ऐसी प्रतिक्रिया की। प्लीज थोड़ी जगह बनाइये क्योंकि यात्रा काफी लंबी है” उसकी इस बात से मुझे सच में ख़ुद के लिए बुरा महसूस हुआ। हालांकि उसने सॉरी नहीं बोला लेकिन वह माफी मांग रहा था, जबकि उसकी कोई गलती नहीं थीI 

मैं चुप ही रही लेकिन उसके लिए कुछ जगह बना दी। मैंने उसके प्रति अपने शुरूआती प्रभाव (फर्स्ट इंप्रेशन) को सुधारने की कोशिश की। वह उतना बुरा नहीं था। अचानक बहुत से लोग हमारे डिब्बे में आ गए। मेरी सीट के सामने दो आदमी खड़े हो गए।

जैसे ही ट्रेन चली एक आदमी ने अपना बिस्तर नीचे रखा और उस पर बैठ गया जबकि दूसरा मेरे बगल में खड़ा रहा। हर बार मेरे कंधे या हाथ से उसका शरीर टकरा जाता। मैं कुछ बोलना चाहती थी लेकिन बोल नहीं पा रही थी। क्या वह जानबूझकर ऐसा कर रहा था या ट्रेन चलने के कारण वह मेरे शरीर से टकरा जा रहा था?

टीटी को बुलायें?

थोड़ी देर बाद आदमी नीचे झुका और उसका पिछवाड़ा मेरे चेहरे के सामने आ गया। मेरा सीट पार्टनर फिर बोला, भाईसाहब क्या कर रहे हैं! लेडीज बैठी हैं, थोड़ा तो कायदे में रहिए! 

तब वह आदमी फिर उठा और बोला। हमने क्या गलत किया है! 
वो ऐसे बोल रहा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, लेकिन मेरा सीट पार्टनर भी अड़ा रहा और बोला, 'आपको पता है आपने क्या किया है और अगर आपको ढंग से जाना है तो ठीक नहीं तो टीटी को बुलाएं।

मुझे लगता है कि उस आदमी ने सोचा कि हम कपल है। वह यह बोलते हुए गेट की तरफ चला गया कि "यहाँ तो हर कोई बात का बतंगड़ बना देता है"I

तब मेरे सीट पार्टनर ने अपनी आंखें बंद कर ली और ऐसा दिखाने की कोशिश करने लगा मानो सो गया हो। शायद इसलिए क्यूंकि पूरे कम्पार्टमेंट की आंखें उसकी ओर पलट चुकी थीI दूसरी सीट पर बैठी आंटी जिन्होंने पहले मामले को सुलझाने की कोशिश की थी, भी मुस्कुरा रही थीं। मुझे भी राहत मिली। मैं उसकी आभारी थी और शर्मिंदगी भी महसूस कर रही थी।

किताब के पहले पन्ने से अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है 
 
मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि उसका ध्यान खींचे बिना उसे कैसे धन्यवाद दूं। इसलिए लगभग एक घंटे तक मंथन करने के बाद मैंने एक कागज पर धन्यवाद लिखा, मुझे उम्मीद है कि उसने इसे पढ़ा होगा। हमनें रास्ते भर दोबारा बातें नहीं की और मुझे यह भी नहीं मालूम कि वह लखनऊ उतरा या नहीं। 

लेकिन इस यात्रा ने मुझे एहसास दिलाया कि कभी भी किसी को सिर्फ़ देखकर उसके बारे में ज़्यादा अंदाज़ा नहीं लगाना चाहिए। सभी पुरुष अजीब और विचित्र नहीं होते हैं। एक अजनबी के इस नेकी ने मैंने दिवाली से एक सकारात्मक शुरूआत की। इस तरह मेरी दिवाली ख़ास बन गयी।

 *गोपनीयता बनाये रखने के लिए नाम बदल दिए गये हैं, तस्वीर में मॉडल का इस्तेमाल किया गया है।

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