'मेरा स्वस्थ्य, मेरा चुनाव' श्रंखला के अंतर्गत पेश है ये लेख।
इस हफ्ते का विषय है रिश्ते।
आरुषि गर्ग एक 24 वर्षीय वकील है।
व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता है कि धारा 377 एक बहुत ही डरावना निर्णय है। समलैंगिक लोगों के अधिकार एक तरह से तुच्छ अधिकार बना दिया गया है और एक तरह समलैंगिक लोगों को समाज का एक "छोटा हिस्सा" समझकर उनके अधिकारों को जैसे परे ही कर दिया गया है। इससे तो यही साबित होता है कि इंसान के एक समान होते हुए भी कुछ लोग कितने असमान समझे जाते हैं।
मुझे लगता है कि ये धारा असमर्थनीय हैं - क्यूंकि समलैंगिक लोगों के अधिकारों का इस धारा ने पूरी तरह से अनादर किया है। और इसी के साथ अनादर किया है इंसान के स्वत्व अधिकार का।
इससे तो ये साबित होता है कि हम भारतीय लैंगिक व्यक्तिकरण को लेकर कितने असुरक्षित हैं। इस विड़म्बना से मैं बहुत घबरा रही हूँ। क्यूंकि एक तरफ हम यौन शोषण के कुछ रूप जैसे शादी से जुड़ा बलात्कार को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं और दूसरी तरफ आपसी सहमति वाले रिश्तों के खिलाफ कानून बना रहे हैं।
धारा 377 के बारे में :
• वर्ष 1861 में भारत के अंग्रेजी शासन के दौरान भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत धारा 377 ज़ारी किया गया, जिसमे समलैंगिकता को गैरकानूनी माना गया।
• वर्ष 1991 में एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन शुरू हुआ जिसमे धारा 377 को रद्द कर दिया गया।
• वर्ष 2001 में नाज़ फाउंडेशन नामक एक गैर सरकारी संस्थान ने धारा 377 को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी।
• 2 जुलाई 2009 को दिल्ली हाई कोर्ट ने मानव अधिकार के आधार पर, धारा 377 के विरुद्ध निर्णय दिया।
• 11 दिसंबर 2013 को भारतीय सुप्रीम कोर्ट के न्यायकर्ता जी. एस. सिंघवी और एस. जे. मुखोपाध्याय ने दिल्ली हाई कोर्ट के इस फैसले को एक तरफ रखा और कहा कि संसद इस पर कानून पर निर्णय लेगा।
सौरव (नाम बदला हुआ) एक 29 वर्षीय इन्वेस्टमेंट बैंकर है।
मुझे लगता है कि समलैंगिकता प्राकर्तिक नहीं है। इसे लोगों पर ज़बरदस्ती थोपा गया है। उदहारण के तौर पर: आर्मी में, या जेल में, स्थितियों के मुश्किल होने कि वजह से, और विपरीत लिंग के लोगों के ना होने कि वजह से, लोग अक्सर अपने ही लिंग के लोगों के साथ सेक्स करने लगते हैं।
लेकिन मीडिया द्वारा बार-बार समलैंगिकता पर विशिष्ठता दर्शाने कि वजह से, इस मुद्दे को बहुत तवज्जो मिल रहा है। इस वजह से युगलों के दिमाग पर भी असर पड़ रहा है, जिस वजह से समलैंगिक होना एक फैशन सा बन गया है।
और ये रुकना ज़रूरी है, इसलिए मैं भारतीय सुप्रीम कोर्ट कि निर्णय से सहमत हूँ।
ऋषि (नाम बदला हुआ) एक 23 वर्षीय शोधकर्ता हैं।
न्यायकर्ता सिंघवी, मेरे दोस्त अपराधी नहीं हैं। वो सेक्स के भूखे भी नहीं हैं और ना ही गलत। मुझे शर्मिंदगी होती है कि जिस कोर्ट को मैं अब तक अपने देश कि शान समझता, उसने किस तरह से मुझे निराश किया है। कानून समाज में बदलाव लाने का एक अहम् हिस्सा होते हैं, लेकिन इस निर्णय से इन्होने समाज में एक साकारात्मक बदलाव को लाने का मौका अपने हाथ से गवां दिया है।
रीना (नाम बदला हुआ) एक 27 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर है।
मुझे अपनी ज़िन्दगी को अपने तरह से जीने का अधिकार मिला और वो भी किसी के रोके-टोके बिना, कि मेरी भावनाएं सही हैं या गलत, 'घटिया' हैं या 'आसामाजिक'। और मुझे ये अधिकार अपना जन्म सिद्ध अधिकार लगता था जब तक कि मैंने धारा 377 के बारे में सुना, और मुझे तब यह प्रतीत हुआ कि समाज के एक बड़े हिस्से को, जो कि समलैंगिक हैं, उन्हें अपनी तरह से जीने का अधिकार ही नहीं है।
विविधता का दमन करने से लोगों को सिर्फ नुक्सान ही पहुचेगा। हम बिना किसी कारन के समाज के बड़े हिस्से से उनका अधिकार चीन रहे हैं। ये समलैंगिकता के विरुद्ध जाने कि या उसे समर्थन देने कि बात नहीं है, ये हमारे समाज में एक बड़े भेद-भाव कि बात है!
समाज में सभी एक तरह के लोग हो ये ज़रूरी तो नहीं, और ऐसा होना सम्भव भी नहीं है। इसलिए जिस तरह से पुरुष, महिला, रंग, जाती, धर्म, अँधा, बेहरा और अन्य चीज़ों के आधार पर भेद-भाव करना गलत है, उसी तरह से लैंगिकता के आधार पर भेद-भाव करना भी गलत है।
छीना (नाम बदला हुआ) एक 25 वर्षीय समाज सेविका है।
मैं धारा 377 के खिलाफ हूँ। पूरी दुनिया में यौन आज़ादी कि तरफ झुकाव बढ़ रहा है और ऐसे में धारा 377 जैसे एक कदम पीछे लेने जैसा है। किसी भी चीज़ को जायज़ और नाजायज़ मान लेना समाज के ताकत समीकरण पर निर्भर करता है। मुझे ऐसा लगता है जैसे हमारे समाज के कुछ वरिष्ठ लोगों ने समलैंगिकता के खिलाफ निर्णय ले लिया है, जो कि सच्चाई से विपरीत है।
गैरकानूनी शब्द बहुत दुखदायी है और प्यार करना जुर्म कैसे हो सकता है। मेरे विचार में अपनी इच्छाओं को दबाना और बिना डरे अपना प्यार ज़ाहिर कर पाना हमारे मूल अधिकारों के खिलाफ है। सिर्फ समाज में कुछ लोगों के मानने पर बनाये जाने वाले कानून के चलते अपनी भावनाओं को दबाना एक स्वस्थ्य समाज कि निशानी नहीं है।
धारा 377 और कोर्ट निर्णय पर आपके क्या विचार हैं। यहाँ लिखिए या फेसबुक पर हो रही चर्चा में हिस्सा लीजिये।