अलीगढ़- समलैंगिकता के बारे में हमारी सोच पर एक सवालिया निशान

Submitted by Kiran Rai on शनि, 03/05/2016 - 10:39 पूर्वान्ह
समलैंगिक अनुभव को दर्शाती डायरेक्टर हंसल मेहता की फ़िल्म अलीगढ़ 26 फरवरी 2016 को रिलीज़ हुईI फिल्म समीक्षकों ने भी इसे 'अ मस्ट वॉच' का टैग देते हुये हरी झंडी दी है।

समाज का दायित्व

भारत में प्रदर्शित यह शायद पहली फ़िल्म है जो पुरुष समलैंगिगता पर इतनी सजींदगी से कई मज़बूत सवाल उठाती है। जैसे कि- क्या समलैंगिगता अपराध है? क्या समाज किसी व्यक्ति के समलैंगिक होने पर उसको तिरस्कृत करने का अधिकार रखता है? और क्या यह करना सही है? क्या हमारा संविधान किसी भी व्यक्ति की निजी ज़िंदगी की प्राइवेसी को भंग करने की आज़ादी देता है?समलैंगिगता के मामले में नैतिक-अनैतिक बातों का बोझ ढ़ो रहे समाज में धीमी गति से चलती यह फिल्म अंत तक आते -आते आपको झकझोर कर रख देती है ।

नज़रिया बदलने की ज़रुरत

प्रोफेसर श्रीनिवास रामचन्द्र सिरस के जीवन पर आधारित यह फिल्म 6 साल पुरानी एक सच्ची घटना पर आधारित है। अलीगढ़ की एक मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मराठी पढ़ाने वाले 64 वर्ष के समलेंगिक प्रोफेसर सिरस का किरदार मनोज वाजपयी ने बहुत ही शानदार तरीके से निभाया है। यूनिवर्सिटी द्वारा समलैंगिक सम्बन्ध उजागर होने पर प्रोफेसर सिरस को सस्पेंड कर दिया गया थाI उसके बाद अपने फ्लैट में अकेलेपन के साथ घुट-घुट कर और डर-डर कर जीने के दृश्यों को वाजपेयी ने अपनी अदाकारी  से स्क्रीन पर जीवंत कर दिया हैI लोगों द्वारा दी जा रही मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना को झेलते हुए रियल प्रोफेसर सिरस पर क्या बीती होगी इस कश्मकश को वाजपेयी ने बखूबी दिखाया है।

यह सभी दृश्य दर्शकों में गहरी उदासी भर देते हैं, हाँ यह अलग बात है कि सिनेमाहॉल में मौजूद कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके लिए यह फ़िल्म और यह मुद्दा दोनों ही हास्यपद थेI शायद यही वजह थी कि जहाँ कुछ दृश्यों को देखकर मैं सिहर उठी थी वो उनके लिए एक फूहड़ मज़ाक थेI फ़िल्म के दौरान कई बार मेरा रोम-रोम रो पड़ा था और मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह फ़िल्म कि वजह से हो रहा है या उन कुछ दर्शकों के भद्दे कमेंट्स सुनकरI

सेक्स स्कैंडल नहीं सच्ची कहानी

अंग्रेजी न्यूज़पेपर के रिपोर्टर दीपू के रूप में राजकुमार राव बहुत ही सेंसिबली अपनी बात अपनी रिर्पोटिंग हेड से कहते हैं कि “यह घटना कोई सेक्स स्कैंडल नहीं बल्कि एक आदमी की कहानी है और इतनी ही बखूबी से वह इस केस और प्रोफेसर सिरस से पेश आते हैं।

मनोज वाजपयी फिल्म के एक सीन में बड़ी ही मासूमियत के साथ एक डॉयलोग रखते हैं की "कोई मेरी फीलिंग्स को केवल तीन अक्षरों (GAY) में कैसे समझ सकता है? एक कविता की तरह से भावनात्मकI”

377 में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे एक एनजीओ की मदद से इलाहाबाद हाई कोर्ट से जीत मिलने के बाद कहानी का अंत दर्शकों को एक सन्नाटी सोच में छोड़ देता है।

अंत में

मुझे लगता है की सामजिक नागरिक होने के नाते यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम इस मुद्दे को इतनी ही संजीदगी से समझे और लोगो तक पहुंचायें जैसा इस फ़िल्म के ज़रिये निर्देशक ने समझााने कि कोशिश कि है।

हमारे देश में शायद समलैंगिगता का मसला तब तक हल नहीं होगा जब तक आप और हम सब इस तरह की फिल्मों को बिना किसी भद्दे कमेंट्स के देखने और समझने की कोशिश नहीं करेंगे।

रियल लाइफ से जुड़ी घटना पर समलैंगिगता के मुद्दे को दिखाती ईट'स अ मस्ट-वॉच मूवीI

*इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार लव मैटर्स के नहीं हैं, तथा लव मैटर्स उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है। 

क्या आपको लगता है कि समलैंगिकता को गैर कानूनी करार दे देना चाहिए? फेसबुक पर हमसे संपर्क करें या हमारे फोरम जस्ट पूछो पर अपने विचार साझा करें