सच का सामना
शादी के बाद मेरी पहली प्रेग्नेंसी एक अच्छा अनुभव था। मैने अपना ख्याल रखा, पौष्टिक आहार खाया, और सुबह शाम खुली हवा में सैर की। अचानक ही मेरे ससुराल वालों को मुझ पर कुछ ज़्यादा ही प्यार आने लगा। मैं खुश थी, गर्भावस्था और मातृत्व की किताबें पढ़ती थी और जिस हॉस्पिटल को मैने चुना था, वहां की महिला रोग विशेषज्ञ के साथ समय समय पर मिलती रहती थी।
मैंने गर्भवती महिलाओं की सबसे लोकप्रिय किताब ‘व्हाट टू एक्सपेक्ट व्हेन यु अर एक्सपेक्टिन’ अच्छी तरह पढ़ ली थी और अपने बच्चे को दुनिया में लाने के लिये मैं पूरी तरह तैयार महसूस कर रही थी। लेकिन वास्तविकता को कुछ और मंज़ूर था। उस समय हम मध्य भारत के एक छोटे शहर में रहते थे।
जैसे ही प्रसव की पीड़ा शुरू हुई, मुझे छोटे शहर के हॉस्पिटल में दाखिल कर दिया गया। प्रसव कक्ष में किसी को आने की आज्ञा नही थी। मेरे दर्द और हॉस्पिटल के स्टाफ के संवेदनहीन बर्ताव ने इस अनुभव को बुरे सपने जैसा बना दिया। उनके शब्दों का चुनाव और उनका रुख इतना अभद्र था कि मानो मुझे प्रेग्नेंट होने के लिये शर्मसार किया जा रहा हो। मैं सोच रही थी कि जब ये लोग विवाहित गर्भवती महिला के साथ ऐसे पेश आते हैं तो ना जाने अविवाहित गर्भवती महिला के साथ क्या करेंगे!
अंततः 24 घंटे प्रसव पीड़ा झेलने के बाद उन्होंने आपरेशन के ज़रिए शिशु जन्म का फैसला किया।
सब खराब
शिशु के जन्म के बाद भी मेरी मुश्किलें कम नहीं हुई। सर्जरी का दर्द कम भी नही हुआ था और मुझे शिशु को स्तनपान कराने को कहा गया। मैं डरी हुई थी और मेरे स्तन में दूध नही बन रहा था। अगले 24 घंटे उस अस्पताल में मेरे लिए बुरे सपने के समान थे। आने वाले कुछ दिनों में भी हालत कुछ खास बेहतर नही हुई क्योंकि मुझे ‘पोस्ट पारटॉम डिप्रेशन’ हो रहा था।
मैं बच्चे की देखभाल अकेले कर रही थी और मेरी रातों की नींद का कोई ठिकाना नही था। जब मेरे पति ने मेरी हालत देखी तो उन्होंने कहा कि हमें इस सब से दूर चलकर कुछ सुकून का वक़्त गुज़ारना चाहिए। उनके माता पिता ने बच्चे की ज़िम्मेदारी संभाली और हम दोनों काठमांडू चले गए।
एक बार फिर
मैं शुक्राणु नाशक का सेवन कर रही थी और मुझे लगा कि इस दौरान में दोबारा प्रेग्नेंट नही हो सकती। लेकिन मैं गलत थी, अगले महीने मेरी माहवारी नही हुई और मुझे ये जानकर झटका लगा कि मैं फिर से गर्भवती हो गयी थी।
पहले अनुभव की बातें सोचकर मेरे दिमाग में तूफ़ान सा आ जाता था। दर्द, थकान, और रातों को फिर जागने की बात सोचकर मेरी हिम्मत जवाब दे गई थी।
मेरा शरीर, मेरी मर्जी
मैंने खुद को बोला, फिर से ये सब नही! मैं जानती थी कि मेरा परिवार इस निर्णय में मेरा साथ देगा।
मुझे अपने एक प्रोफेसर के शब्द याद आ गए जिन्होंने हमें कहा था,’ महिला को अपने शरीर से संबंधित फैसले खुद लेने चाहिए’। इसलिये मैंने डॉक्टर का अपॉइंटमेंट लिया और एबॉर्शन करने का फैसला किया।
मुक्ति
एबॉर्शन के बाद मानो मुझे मोक्ष जैसा महसूस हुआ। मेरा सारा ध्यान अब मेरी बेटी पर था। उसके साथ बिताए समय ने धीरे धीरे उन ज़ख्मों को भर दिया जो उस भयानक अनुभव से मुझे मिले थे।
कभी कभी मैं सोचती हूँ कि अगर मैंने एबॉर्शन नही हिया होता तो क्या होता। शायद दूसरे प्रसव से मैं पूरी तरह टूट जाती, और अपने पहले बच्चे पर भी पूरा ध्यान ना दे पाती।
मुझे खुशी है कि मैंने एबॉर्शन को चुना। अपने शरीर के निर्णय खुद ले पाने से मुझे आत्म विश्वास मिला। हां, मैंने दूसरा बच्चा करने का फैसला लिया और मेरे जीवन में मेरा बेटा भी आ गया। लेकिन मैंने ये फैसला तब लिया जब मैं इसके लिए मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार थी।
अब जब मैं मुड़कर देखती हूँ, तो मुझे अपने निर्णय पर गर्व होता है। मेरा निर्णय मेरे काम से भी मेल खाता है- सेक्स और प्रजनन-स्वास्थ्य और अधिकार। मेरा काम, जो मेरे जीवन को कुछ मायने देता है।
28 सितम्बर को सुरक्षित और कानूनी गर्भपात के लिए विश्व दिवस था और इसी उपलक्ष्य में सुभासिनी ने (बदला हुआ नाम बदलकर) ने हमारे #ChoiceOverStigma ब्लोगाथन के लिए अपनी गर्भपात की कहानी साझा की हैी
इस हफ्ते, हम उन भारतीय महिलाओं की कहानियों को अपने पाठकों के लिए लाये हैं जिन्होंने गर्भपात करवा कर अपने प्रजनन अधिकारों पर हक़ जतायाI
कल, हम आस्मा की कहानी आपके लिए लाएंगे जिनके विवाहित प्रेमी ने उसे तब छोड़ दिया था जब उसे पता चला था कि वो गर्भवती हैI
लव मैटर्स सुरक्षित, कानूनी और आसानी से उपलब्ध गर्भपात के लिए महिलाओं के अधिकार का समर्थन करता हैI।
तस्वीर के लिए मॉडल का इस्तेमाल किया गया है.
यह लेख पहली बार 28 सितंबर, 2017 को प्रकाशित हुआ था।
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