यह लेख हमारे '2016 के संपादकों की पसंद' शृंखला का अंश है। यह 9 जून 2016 को पहली पर प्रकाशित किया गया था।
श्रीलता तिवारी (परिवर्तित नाम) 25 साल की हैं और एक गैर सरकारी संस्था में प्रोडक्शन असिस्टेंट हैं
पहली बार
मैं 11 साल की थी जब मुझे पहली बार मासिक धर्म (पीरियड) हुए थेI उस समय किशोरावस्था और उससे जुड़े शारीरिक बदलावों से मैं बिलकुल अनजान थीI सच बताऊँ तो अचानक से अपनी योनि से खून निकलता देख मेरे होशों-हवास ही उड़ गए थेI मैं इतनी डर गयी थी कि मुझे लगा जैसे मुझे कोई गम्भीर रोग हो गया हैI
उसी घबराई हुई अवस्था में मैंने अपनी माँ और बड़ी बहन को तुरंत इस बारे में बता दियाI मेरे आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे और रोते-रोते मैं बोले जा रही थी कि "मैं मरने वाली हूँ क्यूंकि मेरा खून निकल रहा है"I मेरी माँ शायद मुझसे ज़्यादा डर गयी थी और उनकी बात सुनकर तो मैं और भी घबरा गयी थी, " हे भगवान्! उसके पीरियड्स इतने जल्दी कैसे आ गएI"
सख्त नियम-क़ानून
मेरी बहन यह कहकर मुझे समझाने की कोशिश कर रही थी कि यह हर लड़की के साथ कभी ना कभी होता है लेकिन मेरी माँ ने उसे चुप करा दिया, शायद वो मोर्चा खुद सम्भालना चाहती थीI
मुझे याद नहीं कि उन्होंने मुझे सांत्वना दी या नहीं, लेकिन यह अच्छी तरह से याद है कि वो कह रही थी कि घर में रखी मूर्तियों को नहीं छूना है और मंदिर के तो आसपास भी नहीं जाना हैI उन्होंने मुझे यह भी सख्त हिदायत दी थी कि 'इन दिनों' में ना तो मुझे पूजा करनी है और ना किसी मंदिर जाना हैI मुझे ऐसा लग रहा था जैसे रातों-रात मेरे अंदर कोई चुड़ैल आ गयी होI
उनकी हिदायतें यही ख़त्म नहीं हुईI मुझे अचार और पेड़-पौधों से भी दूर रहने को कहा गया थाI छोटी स्कर्ट पहनने की भी सख्त मनाही हो गयी थी, अब से मुझे सिर्फ़ पूरे पजामे ही पहनने थेI यह मेरी समझ से बाहर था एकदम से मेरे ऊपर इतनी पाबंदियां क्यों लग गयी थीI मैंने अपनी बहन से पूछा कि मुझ में क्या कमी हैI
प्राकृतिक कार्यविधि
कुछ दिनों बाद मेरी बहन ने मुझे अपने पास बुलाया और यह समझाया की मासिक धर्म या पीरियड्स कोई बीमारी नहीं हैI यह तो प्रकृति का नियम है जो हर लड़की के साथ होता हैI
मुझे यह जानकर गुस्सा तो बहुत आया कि पहले से पता होने के बावजूद वो इस बारे में अब तक चुप रही थी लेकिन यह सोचकर मैंने चैन की सांस भी ली थी कि मैं मरने वाली नहीं हूँI
मासिक धर्म से जुड़े मिथ्यों को चुनौती
उसके बाद हर महीने के वो सात दिन मेरे लिए ऐसे थे जैसे स्कूल की कोई सज़ाI मेरा किसी से मिलना या अपने भाई के साथ खेलना भी मना थाI अपने पीरियड खत्म होने के बाद भी मैं तभी बाहर निकल सकती थी जब तक मैं अपने आपको सर से लेकर पाँव तक अच्छे से साफ़ ना कर लूँI
एक दोपहर मेरी माँ छत पर मसाले सुखा रही थीI मैं देखना चाहती थी कि मेरे इन्हें छूने से क्या होगा इसलिए मैंने फटाफट नीचे जाकर आम का अचार खा लियाI उसके बाद मैंने यह देखने के लिए कुछ दिन इंतज़ार किया कि क्या होता हैI
अब पीरियड्स के भी दौरान खुश...
वाह, अचार को कुछ नहीं हुआ था और यह जानकर मैं बड़ी खुश थीI उस एक बात से मुझे यह समझ आ गया था कि हमारे आसपास मासिक धर्म से जुड़ी कई गलत धारणाएं प्रचलित हैंI उस दिन के बाद से मैंने किसी भी रोक-टोक को गम्भीरता से नहीं लियाI मैं शौक से मंदिर जाती थी और जब मन करता पेड़-पौधों को छू लेती थी, सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि मैं बहुत खुश थीI मुझे सब कुछ बहुत अच्छा लगने लग गया थाI
मैं जैसे-जैसे बड़ी हुई, मेरे शरीर में और बदलाव होने शुरू हो गएI अपने आपको और समझने के लिए मैंने इस बारे में पढ़ना शुरू कर दियाI मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ था कि हमारे समाज में मासिक धर्म से जुड़े कई मिथ्य प्रचलित थे और इनका कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं थाI मेरे लिए यह भी बड़ी हैरानी की बात थी कि यह मिथ्य पूरे देश में फैले हुए थेI
आवाज़ उठाना
मुझे नियमों को तोड़ने में स्वछंदता का आभास होता थाI मैंने कभी किसी को खुल पर नहीं बताया था लेकिन मैंने उनका पालन करना छोड़ दिया थाI
एक बार मैं अपनी माँ और बहन के साथ मंदिर जा रही थी कि रास्ते में ही मेरे बहन के पीरियड शुरू हो गएI मेरी माँ ने उसी समय मंदिर जाने का प्रोग्राम यह कह कर रद्द कर दिया कि यह अपशगुन हैI मेरे लिए अपने गुस्से पर काबू रखना अब मुश्किल था और मैंने बोलना शुरू कर दिया "पीरियड्स आना ना तो अपशगुन है और ना ही यह कोई बुरी बात हैI यह एक सामान्य क्रिया है जिससे ना तो आपके अचार पर फ़र्क़ पड़ता है और ना ही आपके पेड़-पौधों कोI फ़र्क़ सिर्फ आपकी सोच से पड़ता है जिसकी वजह से हमें घुट-गट कर जीना पड़ता हैI
मेरी माँ को मेरी बातें सुनकर बहुत बुरा लगा था, उन्होंने पूरे दिन मुझसे बात नहीं की थीI लेकिन मैं खुश थी कि मैंने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई थीI
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