"हमारे माता-पिता समाज को लेकर बहत परेशान थे। वो बार-बार हमारी शादी की बात टालते इस डर से की आखिर समाज में लोग क्या कहेंगे," संगीता का कहना है। और इसलिए हमने कोर्ट में शादी करने का फैसला लिया, और सोचा की शादी के बारे में हम उन्हें शादी करने के बाद ही बताएँगे।"
संगीता और नसीम (नाम बदला हुआ है) फाइनैन्स प्रोफेशनल है और मुंबई में रहते हैं।
नसीम और मैं एक ही जगह पर काम करते थे। नसीम तो उस कंपनी में मेरे आने से पहले से भी काम करता था। अधिकतर लोग उनकी तरफ आकर्षित होते हैं जिनकी पसंद या नापसंद एक दुसरे से मिलती हो लेकिन हमारा रिश्ता शुरू हुआ एक झगड़े के साथ। और अक्सर हम दोनों के बीच किसी ना किसी बात को लेकर झगडा चलता ही रहता था, और इन्ही झगड़ों की वजह से हम एक दुसरे को ज्यादा अच्छे से जानने लगे।
और फिर समय के साथ हम एक दुसरे को पसंद करने लगे और जल्द ही हमारा रिश्ता शुरू हो गया और हम डेट करने लगे। हम दोनों बिलकुल अलग परिवार, अलग धर्म और अलग परिवेश के हैं। नसीम हिन्दू है और मैं मुस्लिम। तो हम रिश्ते में तो थे लेकिन जब भी शादी की बात बीच में आती तो हम दोनों के कदम पीछे हो जाते थे। फिर हम दोनों ने सोचा की हम एक दुसरे के परिवार और संस्कृति को जानने की कोशिश करेंगे और उसके बाद ही शादी के बारे में सोचेंगे।
परिवारों से मिलना
हम दोनों ने निर्णय लिया की हम एक दुसरेके परिवारों से दोस्त होने की हैसियत से मिलेंगे और एक दुसरे के परिवार के साथ कुछ दिन बिताने की कोशिश भी करेंगे ताकि एक दुसरे की सभ्यता और चाल-चलन को समझ सके। हम दोनों की इच्छा थी की हमारी शादी के निर्णय में हमारे परिवार हमारा साथ दें।
पहले में पांच दिन की छुट्टी लेकर दुर्गापुर गयी। मेरे साथ मेरे और दोस्त भी साथ आये ताकि अजीब ना लगे और मैं अच्छे से नसीम के परिवार को समझ सकूँ। उसके बाद नसीम की बारी आई। वो रायपुर मेरे घर आया, मेरे माता-पिता से मिला और परिवार के बाकि लोगों से और मेरे दोस्तों से भी। जब हम दोनों को इस बात की तस्सली हो गयी की हम एक दुसरे के घर में रह सकते हैं और एक दुसरे के परिवार का हिस्सा बन सकते हैं तब हमने शादी करने का फैसला किया।
ज़बरदस्ती मत परिवर्तन करना
फिर शुरू हुआ माता-पिता को मनाने का मुश्किल काम। हम दोनों के माता-पिता को बड़ा झटका लगा यह सुनकर की हम अलग धर्म के इंसान से शादी करना चाह रहे थे। नसीम के माता-पिता चाहते थे की मैं मुसलमान बन जाऊं, जो की मैं बिलकुल नहीं करना चाह रही थी। और मेरे माता-पिता को बिलकुल मंज़ूर नहीं था की उनका दामाद मुसलमान हो। उन्होंने हमारी शादी का विरोध किया केवल अलग धर्म होने की वजह से।
फिर तो जब भी हम अपने घर अपने परिवारों से मिलने जाते, तो वो बस यही बात हमे कहते की मुझे और नसीम को एक दुसरे को भूल जाना चाहिए। मुझे बताया जाता की बहुत सारे हिन्दू धर्म के लड़के है जो मुझे शादी के लिए पसंद आयेंगे और नसीम को बताया जाता था अच्छी मुसलमान लड़कियों के बारे में। और यह बातें सुन-सुनकर इतना सिर दर्द हो जाता था की हम उनके सामी कह ही देते थे की हाँ हम एक दुसरे को भूल जायेंगे। लेकिन जब हम मुंबई वापस आते तो हम अपने माता-पिता के साथ किये इन सभी वादों को भूल जाते और एक दुसरे के साथ मिल जाते।
समाज का डर
ये सिलसिला करीद ढेढ़ साल तक चलता रहा। और फिर हार कर हमारे माता-पिता ने हाँ कर दी। उन्होंने मिलकर शादी की तारिख तय कर ली। लेकिन फिर अचानक से उन्होंने तारिख बदल दी और फिर बाद में शादी के लिए फिर मना कर दिया। मुझे और नसीम को यह समझ आ गया था की हमारे माता-पिता को शायद हमारी शादिस इ इतनी तकलीफ नहीं थी लेकिन उन्हें समाज का ज़्यादा डर था।
और फिर हम दोनों ने तय किया की हम बिना उनकी हामी लिए शादी कर लेंगे। साल 2009 में हमने मुंबई में 'स्पेशल मैरिज एक्ट' के अंतर्गत अपने दोस्तों और सहकर्मियों के सामने शादी करी। एक तरफ से हम घर से भागे नहीं थे क्युकी हम दोनों वैसे भी मुंबई में अलग रहते थे और हमारे माता-पिता को हमारे रिश्ते की पूरी जानकारी थी।
दोनों तरफ से उत्तम
अगले दिन हमने अपने माता-पिता को फोन किया और उन्हें अपनी शादी करने की खबर दी। वो खुश नहीं थे। नसीम के माता-पिता ने तो उससे काफी समय तक बात ही नहीं करी। मेरे माता-पिता बहुत आश्चर्यचकित नहीं हुए शादी की खबर सुनकर लेकिन वो खुश भी नहीं थे। उन्हें दुःख था की हमने उनकी हामी का इंतज़ार नहीं किया। लेकिन अब हमारी शादी को पांच साल हो चुके हैं और अब हम दोनों के परिवार हमसे खुश हैं।
मैं अपने सास-ससुर से भी अब बात करती हूँ और नसीम मेरे माता-पिता से। हम दोनों के माता-पिता हमसे मिलने भी आते हैं। यह लड़ाई हमारे लिए आसान नहीं थी लेकिन आज हम दोनों धर्मों के मजे ले रहे हैं - ईद की बिरयानी भी और दिवाली के लडू भी।
(इस फोटो में वो लोग नहीं जिनकी इस लकेह में चर्चा हो रही है )
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